- मिलन सिन्हा
औपचारिक शिक्षा के पहले पायदान अर्थात प्राथमिक कक्षा से हमें प्राथमिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। समय के साथ इसकी बारीकियों व इसके बहुआयामी महत्व को जानते -समझते हुए हम जीवन की रंग -बिरंगी यात्रा में अपने-अपने खट्टे -मीठे अनुभवों के साथ आगे बढ़ते रहते हैं। लिहाजा, अगर अगले कुछेक घंटे में कई काम संपन्न करने की चुनौती होती है, तो उसमें से पहले कौन सा काम करें और बाद में कौन-सा, प्राथमिकता के सिद्धांत को लागू करते हुए अपनी समझदारी से हम न केवल पूरे काम को जल्द निबटाते हैं, बल्कि काम के परिणाम में बेहतरी भी सुनिश्चित कर पाते हैं। ऑफिस हो या फैक्टरी, हर स्थान पर रोजमर्रा के काम में हमें कई बार एक साथ कई काम दिए जाते हैं, जिसे नियत समय सीमा के अन्दर अंजाम तक पहुंचाने की सामान्य अपेक्षा होती है। ऐसे भी अवसर आते हैं जब दिए गए सारे कार्य इतने महत्वपूर्ण होते हैं और लगते भी हैं कि किसे पहले एवं किसे थोड़ी देर बाद में करें, फैसला करना मुश्किल हो जाता है। यूँ भी, एक साथ सब काम करना संभव नहीं होता, और -तो -और, अगर सारे काम एक साथ करने की ठान भी लें, तथापि सभी काम को सही तरीके से अंजाम तक पहुंचाना काफी जोखिमभरा साबित होता है। अतः ऐसी परिस्थिति में अति महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण की श्रेणी में रखकर कार्यों को साधना मुनासिब होता है। ऑफिस या अन्य किसी कार्यस्थान में ज्यादा प्रभावी कर्मी एवं मेहनती लेकिन कम प्रभावी कर्मी के बीच मुख्यतः फर्क इसी बात का होता है। कहना न होगा, आज के तेज रफ़्तार कॉरपोरेट कार्य संस्कृति में जब सबकुछ फटाफट चाहिए होता है वहां संस्था के निरन्तर विकसित होते जाने के घोषित -अघोषित लक्ष्य के सन्दर्भ में 'रिस्क -रिवॉर्ड' यानी 'जोखिम बनाम फायदा' का ध्यान रखना लाजिमी होता है । ऐसे भी, प्राथमिकता तय करके काम करना जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कामयाबी तक पहुंचने का एक महत्वपूर्ण सूत्र माना गया है।
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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