Monday, December 31, 2012

आज की कविता : नई दिशा

                                  - मिलन  सिन्हा 
नई दिशा 
शाम सुर्ख हो चली थी 
पक्षी अपने  नीड़  को लौट रहे थे 
मजदूर  अपने घरों को 
सभी जल्दी में थे 
कुछ बालाओं के पीछे 
कुछ लड़के भी थे 
दूरी कम करने की 
इच्छा  बलवती  थी 
बालाएं गुमसुम  थीं 
लड़के  मुखर 
एक सुझाव आया 
पकड़ो न उसका हाथ 
एक तत्पर  हुआ 
तभी उस लड़की ने अचानक घूमकर 
उस लड़के का हाथ कसकर पकड़ा 
फिर ममोड़ा 
हल्की  चीख निकली 
लड़के स्तब्ध, हतप्रभ 
लड़की अविचलित 
आत्मविश्वास से  ओतप्रोत 
लड़की बोली 
भाई, इस मोड़ से  शायद 
तुम्हारी जिंदगी में नया मोड़ आ जाए 
शायद  तुम दहेज  लेने  को आतुर बैठे 
अपने पिता का हाथ पकड़ सको 
अपनी बहन पर हो रहे 
ससुरालवालों का जुल्म रोक सको 
अपने आसपास हो रहे अन्याय को 
कुछ कम कर सको 
भ्रष्टाचार के कीचड़ के कमल बन सको 
साम्प्रदायिकता के जहर को मिटा सको 
और फिर जब तुम्हारे ये हाथ 
वाकई इतने समर्थ  एवं सक्षम हो जाये 
कि सचमुच जिस लड़की का हाथ पकड़ो 
उसका हर हाल में 
साथ निभा सको 
उसका पति  परमेश्वर नहीं 
वाकई हमसफ़र, हमराज बन सको 
तब तुम ऐसा जरूर करना 
पर चोरी छुपे नहीं 
बल्कि 
सबके सामने सर उठाकर  करना 
सच मानो, मेरे भाई 
इस देश की हर लड़की को 
ऐसे नौजवान की प्रतीक्षा है 
तुम आना 
ऐसा बन जाओ तो आना 
लड़की चली गई 
लड़के भी चुपचाप चले गए 
तमाशबीन भी चलते बने 
पर, मुझे लगा कि 
शाम  का सुर्ख  होना 
बेमानी नहीं था 
भविष्य की दिशा 
ऐसे ही निश्चित होगी शायद !

( 'हिन्दुस्तान' में 6 फ़रवरी, 2006 को प्रकाशित) 

                                                       और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं

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