-मिलन सिन्हा
रांची से प्रकाशित आज के कई अखबारों में मानव तस्करी से जुड़ी खबर है. यह बात सामने आ रही है कि झारखण्ड राज्य की 15 हजार बालिकाएं ट्रैफिकिंग की शिकार हो रहीं हैं. द ट्रैफिकिंग ऑफ़ पर्सन बिल, 2018 की चर्चा भी हो रही है. यह बिल लोकसभा में पारित हो चुका है. आशा करनी चाहिए कि राज्यसभा से भी पारित होने के बाद इस कानून के तहत मानव तस्करी पर लगाम लगाने में प्रशासन को कुछ और आसानी होगी.
दरअसल, पिछले कई वर्षों से मानव तस्करी की घटनाएं उत्तरोत्तर बढ़ती रही है. उसमें भी चाइल्ड ट्रैफिकिंग, खासकर गर्ल्स ट्रैफिकिंग में चिंताजनक वृद्धि दर्ज हुई है. अपेक्षाकृत पिछड़े प्रदेशों में ये घटनाएं अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है. झारखण्ड प्रदेश इनमें शामिल है. अखबारों में यहाँ की लड़कियों जिनमें आदिवासी लड़कियों की संख्या अधिक होती है, के अन्य प्रदेशों एवं महानगरों में ले जाकर बेचने तथा कई अवांछित कार्य में ढकेलने की ख़बरें छपती रही हैं. अब तो मानव तस्करी के घृणित अपराध के पीछे के एक अन्य कारण के रूप में अंग विक्रय भी शुमार हो चुका है.
कहने की जरुरत नहीं कि समाज में व्याप्त गरीबी, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा आदि तो जाने-अनजाने मानव तस्करी में लिप्त असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती है, तथापि इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता, अनेक मामलों में संलिप्तता और घटनाओं के प्रकाश में आने के बाद भी कार्रवाई में शिथिलता के साथ-साथ कई राजनीतिक एवं सफेदपोश लोगों को बचाने के चक्कर में मानव तस्करी की घटनाएं इस हद तक बढ़ पाई है.
विचारणीय प्रश्न यह है कि सिर्फ नए कानून बना देने मात्र से इन घटनाओं को रोकना संभव हो पायेगा? मेरे विचार से तो नहीं. इसके लिए सोशल डेवलपमेंट इंडेक्स में उत्तरोत्तर तीव्र गुणात्मक सुधार की आवश्यकता तो है ही, पुलिस प्रशासन को संवेदनशील बनाने और उनकी जिम्मेदारी तय करने की भी उतनी ही आवश्यकता है. मानव तस्करी के सभी लंबित मामलों को एक समयावधि में निपटाने के लिय न्यायपालिका को भी कोई रास्ता निकालना पड़ेगा. तस्करी के शिकार बच्चों, खासकर लड़कियों को समुचित काउंसलिंग तथा सामाजिक पुनर्वास की सुविधा सुलभ हो, ऐसी व्यवस्था सरकार एवं समाज को मिलकर करनी पड़ेगी.
दरअसल, पिछले कई वर्षों से मानव तस्करी की घटनाएं उत्तरोत्तर बढ़ती रही है. उसमें भी चाइल्ड ट्रैफिकिंग, खासकर गर्ल्स ट्रैफिकिंग में चिंताजनक वृद्धि दर्ज हुई है. अपेक्षाकृत पिछड़े प्रदेशों में ये घटनाएं अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है. झारखण्ड प्रदेश इनमें शामिल है. अखबारों में यहाँ की लड़कियों जिनमें आदिवासी लड़कियों की संख्या अधिक होती है, के अन्य प्रदेशों एवं महानगरों में ले जाकर बेचने तथा कई अवांछित कार्य में ढकेलने की ख़बरें छपती रही हैं. अब तो मानव तस्करी के घृणित अपराध के पीछे के एक अन्य कारण के रूप में अंग विक्रय भी शुमार हो चुका है.
कहने की जरुरत नहीं कि समाज में व्याप्त गरीबी, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा आदि तो जाने-अनजाने मानव तस्करी में लिप्त असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती है, तथापि इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता, अनेक मामलों में संलिप्तता और घटनाओं के प्रकाश में आने के बाद भी कार्रवाई में शिथिलता के साथ-साथ कई राजनीतिक एवं सफेदपोश लोगों को बचाने के चक्कर में मानव तस्करी की घटनाएं इस हद तक बढ़ पाई है.
विचारणीय प्रश्न यह है कि सिर्फ नए कानून बना देने मात्र से इन घटनाओं को रोकना संभव हो पायेगा? मेरे विचार से तो नहीं. इसके लिए सोशल डेवलपमेंट इंडेक्स में उत्तरोत्तर तीव्र गुणात्मक सुधार की आवश्यकता तो है ही, पुलिस प्रशासन को संवेदनशील बनाने और उनकी जिम्मेदारी तय करने की भी उतनी ही आवश्यकता है. मानव तस्करी के सभी लंबित मामलों को एक समयावधि में निपटाने के लिय न्यायपालिका को भी कोई रास्ता निकालना पड़ेगा. तस्करी के शिकार बच्चों, खासकर लड़कियों को समुचित काउंसलिंग तथा सामाजिक पुनर्वास की सुविधा सुलभ हो, ऐसी व्यवस्था सरकार एवं समाज को मिलकर करनी पड़ेगी.
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
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