Thursday, July 28, 2016

यात्रा के रंग : नदी, पेड़ -पौधे, पर्वतमाला और सुहाना मौसम

                                                                                   - मिलन सिन्हा 

... गतांक से आगे ... हमारी कार 'तीस्ता ' नदी पर बने एक पुल के पार आकर रुक गयी. हम सिलीगुड़ी –गंगटोक राजमार्ग यानी एन.एच -10 पर थे और अब सिक्किम प्रदेश में प्रवेश करने वाले थे. इस स्थान को रंगपो के नाम से जाना जाता है. 'रंगपो ' सिक्किम के पूर्व में अवस्थित एक छोटा-सा क़स्बा है जो सिक्किम और पं. बंगाल की सीमा पर स्थित है. यह क़स्बा सिक्किम में प्रवेश करने का एक मुख्य द्वार है जो तीस्ता नदी के किनारे बसा है. सिक्किम में प्रवेश करनेवाले सभी वाहनों को रंगपो चेक पोस्ट पर पुलिस निरीक्षण के लिए रुकना अनिवार्य होता है. सो, हमारी कार के आगे और कई वाहन निरीक्षण की औपचारिकता पूरी करवाते हुए सरक रहे थे. 

रंगपो चेक पोस्ट पर पहुँचते ही सिक्किम पुलिस और पीछे छूटे पं. बंगाल पुलिस के बीच का फर्क सहज ही दिख गया. इस चेक पोस्ट पर तैनात पुरुष और महिला पुलिसकर्मी दोनों ही चुस्त-दुरुस्त एवं अपने काम में ज्यादा दक्ष दिखे. उनकी उम्र भी पैंतीस वर्ष से कम प्रतीत हुआ. ड्राइवर ने बताया कि वाहनों को चेक करने एवं वहां से आगे निकालने के लिए वे एक मानक प्रक्रिया का पालन करते हैं, जो पारदर्शी भी है. 

चेक पोस्ट से थोड़ा आगे बढ़ने पर सिक्किम के पहले बाजार में हम रुके. सड़क के दोनों ओर शराब सहित अन्य खान-पान की चीजें उपलब्ध थी. एक रेस्तरां में कुछ अल्पाहार लेने के बाद हम सिक्किम की राजधानी ‘गंगटोक’ की ओर बढ़ चले. सड़क की स्थिति बेहतर थी. गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी. कलकल कर बहती तीस्ता नदी से मिलते –बिछुड़ते हम सिंगतम के रास्ते पहाड़ पर चढ़ते जा रहे थे, एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर. आसपास का दृश्य बहुत ही मनोरम था. पहाड़ विविध प्रकार के वनस्पतियों से आच्छादित. मोबाइल में ही उन दृश्यों को कैद करने का प्रयास जारी था. साथ में डर भी था कि मोबाइल की बैटरी न ख़त्म हो जाए. गंगटोक पहुंचने तक बैटरी लाइफ को बचाते हुए चलने की मजबूरी थी. लिहाजा, ज्यादातर दृश्य मन-मानस में अंकित करने का प्रयास करने लगा.

बताते चले कि सिक्किम हमारे देश के उत्तर पूर्व भाग में अवस्थित एक पर्वतीय राज्य है. नजदीकी एअरपोर्ट बागडोगरा, जो पश्चिम बंगाल के दूसरे बड़े शहर सिलिगुरी से 11 किलोमीटर की दूरी पर है, से गंगटोक की दूरी करीब 125 किलोमीटर है. गंगटोक समुद्र तल से 5410 फीट की ऊंचाई पर अवस्थित है. जनसंख्या की दृष्टि से यह भारतीय गणतंत्र का सबसे छोटा राज्य है, तथापि भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से यह विविधताओं से भरा प्रदेश है. सिक्किम की सीमा पं. बंगाल के साथ –साथ  नेपाल, भूटान, तिब्बत-चीन जैसे देशों से लगी है, इस कारण इसका सामरिक महत्व बढ़ जाता है. तीस्ता नदी को, जो सिक्किम के उत्तर से दक्षिण की ओर पूरे वेग से बहती है, इस प्रदेश का लाइफ –लाइन कहा जाता है. इस नदी में आपको रीवर राफ्टिंग का आनंद लेते युवाओं की टोली अनायास ही दिख जायेगी. यहाँ कई पन-बिजली उत्पादन केन्द्र हैं, जिससे पूरे सिक्किम को बिजली की आपूर्ति की जाती है. प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न इस प्रदेश में 25 से ज्यादा पर्वत चोटियां हैं, जिनमें विख्यात कंचनजंघा की चोटी सबसे ऊंची है. यहाँ दो सौ से ज्यादा छोटी –बड़ी झीलें हैं. शायद यही सब कारण है कि सिक्किम के रेल और हवाई मार्ग से न जुड़े होने के बावजूद यह हमारे देश के उत्तर पूर्व का एक प्रमुख पर्यटन केन्द्र है.


गाड़ी चल रही थी और घड़ी की सुई भी. एक बोर्ड पर नजर पड़ी, लिखा था रानीपुल – अब गंगटोक बस 12 कि.मी. दूर. पूछने पर ड्राईवर ने बताया कि इसे गंगटोक का ही हिस्सा माना जाता है, क्यों कि यह गंगटोक नगर निगम के अंतर्गत ही आता है.  इसे गंगटोक शहर का पूर्वी छोर कह सकते हैं. यहाँ कई स्कूल एवं व्यवसायिक प्रतिष्ठान  के अलावे दो बड़ी दवाई कम्पनी का प्रोडक्शन यूनिट कार्यरत है. पास में ही ‘मेफेयर स्पा रिसोर्ट एवं कैसिनो’ भी है, जिसके कारण यहाँ बराबर चहल–पहल रहती है. 

गंगटोक के मुख्य बाजार तक पहुंचने से पहले ही ट्रैफिक अनुशासन का पता चलने लगा. आने-जानेवाली सभी गाड़ियाँ बिलकुल लाइन में चल रही थी. नो ओवर टेकिंग, नो बेवजह हॉर्न. गाड़ियों की लम्बी कतार थी, पर धीरे–धीरे आगे भी बढ़ती जा रही थी. थोड़ी-थोड़ी दूरी पर वाकी-टाकी लिए स्मार्ट पुलिस कर्मी अपने–अपने काम में लगे थे. 


गंतव्य आ गया था. होटल में पहुँचते ही एक कर्मी ने बताया और फिर दिखाया कि वह देखिए सामने प्रसिद्ध ‘कंचनजंघा ’ पर्वत दिखाई पड़ रहा है. अच्छा लगा.  होटल और उसके आसपास सफाई दिखी. होटल के कमरे में पंखा नहीं था और न ही होटल में जेनेरटर या इन्वर्टर की सुविधा. कारण यह बताया गया कि यहाँ लोड शेडिंग न के बराबर होता है और सालोभर यहाँ का मौसम कमोबेश ठंडा होने के कारण पंखे की जरुरत महसूस ही नहीं होती. बेशक दोपहर के वक्त कभी-कभी गर्मी का एहसास हो जाए. कहने का तात्पर्य, मौसम है सुहाना, दिल है ..... .... आगे आप खुद समझदार हैं.  ...आगे जारी ...
              और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित

Monday, July 25, 2016

हेल्थ मोटिवेशन : मौजूदा चिकित्सा परिदृश्य और आम आदमी का स्वास्थ्य

                                                         -मिलन  सिन्हा, मोटिवेशनल स्पीकर....

आम आदमी का स्वास्थ्य दिन –पर –दिन गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है. पीने योग्य पानी का अभाव, प्रदूषित हवा और मिलावटी खाद्य पदार्थ ने आम आदमी के जीवन को छोटे- बड़े रोगों से भर दिया है. बच्चे, महिलायें तथा बुजुर्ग इनसे अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावित हैं. आधुनिक चिकित्सा पद्धति को  आधार बना कर चलने वाले सरकारी अस्पतालों की हालत कमोबेश ख़राब है – डॉक्टर, दवाई, रख-रखाव हर मामले में. हो भी क्यों नहीं ? आम आदमी का स्वास्थ्य देश –प्रदेश की सरकारों की  प्राथमिकता में अपेक्षाकृत नीचे पायदान पर जो रहा है. चालू वित्तीय वर्ष 2016 -17 के केन्द्र सरकार के बजट का मात्र 2 % हेल्थ केयर के लिए मुकर्रर है. प्रदेश की सरकारों का नजरिया भी इस मामले में ज्यादा भिन्न नहीं है. ज्ञातव्य है कि हमारे देश में सरकार द्वारा स्वास्थ्य के मद में किये जाने वाले प्रति व्यक्ति खर्च ( उपयोग की चर्चा न भी करें तब ) की तुलना अगर अन्य देशों से करें तो हम उस तालिका में बहुत ही नीचे हैं - बांग्लादेश, मलेशिया , श्रीलंका जैसे देशों से भी.  

सरकार की इस सोच का ही शायद यह प्रतिफल है  कि हर साल स्वास्थ्य के मद में हजारों करोड़ रूपये खर्च करने एवं तमाम सरकारी दावों –विज्ञापनों के बावजूद  यह तथ्य सबके सामने है कि आजादी के करीब सात दशक बाद भी हमारे गांवों की अधिकांश  आबादी  आधुनिक चिकित्सा पद्धति के दायरे से बाहर हैं. आंकड़े भी बताते हैं कि  देश में काम करने वाले  प्रशिक्षित डॉक्टरों में से केवल 30 % ही गांवों में कार्यरत हैं, जब कि अभी भी देश की 70 % आबादी गांवों में रहती है. ग्रामीण क्षेत्र में बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करवाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा वर्ष 2005 में शुरू किये गए बहु-प्रचारित व चर्चित ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ की स्थिति सबके सामने है.  ऐसे भी अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो देश में डॉक्टरों की संख्या पर्याप्त नहीं है.  मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में एक लाख की आबादी पर मात्र 60 प्रशिक्षित डॉक्टर  काम करते हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में ऐसे डॉक्टरों की संख्या कहीं अधिक है, जब कि इन देशों में स्वच्छता, पोषण आदि की स्थिति भी काफी बेहतर है.

आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में निजी क्षेत्र के लगातार बढ़ते प्रभाव के कारण एवं दवा कंपनियों, पैथोलॉजिकल लैब तथा  अनेक चिकित्सकों के बीच अनैतिक गठजोड़ के चलते भी आधुनिक चिकित्सा बहुत मंहगी और आम आदमी के बूते से बाहर होती जा रही है. दवाओं की ओवरडोजिंग, अनावश्यक पैथोलॉजिकल टेस्ट, आईसीयू –सीसीयू के नाम पर दोहन आदि से रोगी और उनके परिजन  परेशान होते रहे हैं.  कमोबेश यह समस्या देशव्यापी है और दिनोंदिन ज्यादा गंभीर  होती जा  रही है. देश के कई अच्छे, सच्चे एवं बड़े डॉक्टरों ने समय–समय पर इस निरंतर गहराती समस्या को अपने –अपने ढ़ंग से रेखांकित किया है. हाल ही में नासिक के दो डॉक्टरों, डॉ. अरुण  गद्रे   और  डॉ. अभय  शुक्ला ने अपनी किताब, ‘डिसेंटिंग डायग्नोसिस’ में मौजूदा चिकित्सा व्यवस्था के गड़बड़झाले  का बेबाकी से वर्णन किया है. 


तो सवाल है कि भारत की इतनी बड़ी आबादी रोगों से लड़ने –बचने के लिए तथा सामान्य तौर पर  स्वस्थ रहने के लिए आखिर अबतक कौन सा तरीका अपनाती रही– बेशक कुछेक बड़े रोग, आकस्मिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं एवं तत्काल शल्य चिकित्सा से जुड़े मामलों को छोड़कर ? और ऐसे करोड़ों लोग आगे भी  स्वस्थ जीवन जीने के लिए क्या करें ? समाज और सरकार के लिए क्या करना नितांत जरुरी है ? 

एकाधिक सर्वेक्षण एवं स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते है कि आम भारतीय, खासकर ग्रामीण लोग इस मामले में अब तक  मुख्यतः पारम्परिक चिकित्सा  पद्धति पर निर्भर रहे हैं और कई कारणों से शायद आगे भी रहेंगे. ऐसा इसलिए कि हमारा देश पारम्परिक चिकित्सा ज्ञान के मामले  में अत्यधिक समृद्ध रहा है  और हजारों सालों से चली आ रही पूर्णतः स्थापित परम्पराओं की  एक पूरी श्रृंखला सामाजिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में उपलब्ध रही है. 

हाँ, यह सच है कि बावजूद समृद्ध स्वास्थ्य परम्पराओं  के आज  हमारी  शहरी आबादी का बड़ा हिस्सा कारण–अकारण  स्वास्थ्य ज्ञान के इस असीमित स्त्रोत का उपयोग अपने व्यवहारिक जीवन में नहीं करते हैं  और फलतः सामान्य शारीरिक परेशानियों या बीमारियों, जैसे सर्दी-जुकाम, डायरिया –कब्ज, सिर दर्द –बदन दर्द आदि  से ग्रसित होने पर भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति (यानी एलोपैथी) को अपना कर अपनी जेब ढीली करने के साथ-साथ अनायास ही उसके कई नकारात्मक साइड इफेक्ट्स से भी  जूझते रहते हैं.

तो सवाल उठना वाजिब है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? 

दरअसल बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के सामाजिक दुष्प्रभावों  के अलावे लगातार तेजी से संयुक्त परिवारों  के टूटने  और उतनी ही तेजी से एकल परिवारों के बढ़ते जाने के कारण  दादा–दादी, नाना–नानी, चाचा-चाची, फूफा-फूफी जैसे बुजुर्गों के मार्फ़त बच्चों में स्वतः हस्तांतरित होने वाले व्यवहारिक स्वास्थ्य ज्ञान का सिलसिला ख़त्म हो रहा है. यह भारत जैसे देश के लिए गंभीर चिंता का सबब है. लिहाजा, घरेलू उपचार की हमारी समृद्ध धरोहर को फिर से किसी –न- किसी रूप में पुनर्स्थापित करने  की जरुरत आन पड़ी है, जिससे एक बड़ी आबादी को सामान्य रोगोपचार के मामले में कुछ हद तक आत्मनिर्भर बनाया जा सके. 

कहना न होगा, इस महती कार्य को प्रभावी ढंग से जमीनी हकीकत में तब्दील करने में समाज के जाने-माने लोगों (ओपिनियन मेकर्स) और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े अच्छे तथा जानकार लोगों के साथ-साथ  स्कूलों, कॉलेजों, कॉरपोरेट ऑफिसों की भूमिका अहम है. इसके लिए ऐसे सभी संस्थानों में एक सुविचारित व सुनियोजित जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन जरुरी है. इसमें रहन–सहन, खान-पान सहित रोगों के रोकथाम तथा सामान्य बिमारियों में किये जाने वाले   घरेलू  उपचारों पर खुलकर चर्चा हो, जिससे स्वास्थ्य के प्रति आम लोगों में जिज्ञासा एवं जागरूकता निरंतर बढ़े और उन्हें उपयुक्त जानकारी भी मिलती रहे.  सच मानिए , नियमित रूप से ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन से  एक जागरूक एवं स्वस्थ परिवार-समाज-प्रदेश-देश के सपने को धीरे –धीरे ही सही, मूर्त रूप देना संभव हो पायेगा.

अंत में यह अच्छी तरह स्पष्ट कर देना जरुरी है  कि मौजूदा स्वास्थ्य परिदृश्य में सरकारी अस्पतालों की वर्तमान स्थिति में सतत गुणात्मक सुधार  की आवश्यकता है और रहेगी. एक बात और. सरकार को ‘प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर’ के सिद्धांत को उच्च प्राथमिकता के स्तर पर अमल में लाना होगा. अर्थात स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा रोगों के रोकथाम पर इस्तेमाल ( सिर्फ खर्च नहीं ) करना होगा.                                                                                                                                                       ( hellomilansinha@gmail.com )

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Tuesday, July 19, 2016

आज की बात: क्या हम अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकते?

                                                                                        -  मिलन  सिन्हा
खेलना किसे पसंद नहीं है ? खेल की बात हो, तो बच्चे मचल उठते हैं. बड़े-बुजुर्ग भी अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों की याद में खो से जाते हैं. अपने देश के विभिन्न खेल मैदानों में हजारों-लाखों की भीड़ हमें यह बताती है कि हमें खेलों से कितना लगाव है. हम खेलना चाहते हैं और अपने खिलाड़ियों को खेलते हुए देखना भी. शायद कुछ ऐसी ही भावना से ओतप्रोत हमारे प्रधान मंत्री ने ब्राजील के शहर ‘रियो डी जनेरियो’ में 5 अगस्त से 21 अगस्त, 2016 के बीच होनेवाले आगामी ओलम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करनेवाले खिलाड़ियों से हाल ही में मुलाक़ात की और उन्हें पूरे देश की ओर से शुभकामनाएं दी. प्रधान मंत्री ने हरेक खिलाड़ी से व्यक्तिगत तौर पर बात की और उन्हें देश के लिए पदक जीतने को प्रेरित भी किया.

ज्ञातव्य है कि 2012 के लंदन ओलम्पिक  में  भारत को केवल 6 पदक मिले थे – दो रजत और चार कांस्य. 17 दिनों तक चले इस खेल महाकुंभ में जिन 204 देशों ने भाग लिया उनमें से सिर्फ 85 देश ही पदक हासिल कर पाए. 104 पदक पर कब्ज़ा जमा कर अमेरिका पहले स्थान पर था, जब कि 87 पदक के साथ चीन दूसरे  और 65 पदक के साथ मेजबान देश ब्रिटेन तीसरे स्थान पर रहा. पदक तालिका में भारत 55वें स्थान पर रहा. भारत के 83 खिलाड़ियों ने विभिन्न खेलों में भाग लिया और पदक जीतने का हर संभव प्रयास किया.

बताते चलें कि वर्ष 2012 में हमारे देश की आबादी करीब 121 करोड़ थी. कहने का अभिप्राय यह कि चीन के बाद विश्व के दूसरे सबसे ज्यादा आबादी वाले देश भारत को लंदन ओलम्पिक में मात्र 6 पदक हासिल हुए. तुलनात्मक रूप से देखें तो 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में प्राप्त तीन पदक के मुकाबले हमारा प्रदर्शन 100% बेहतर रहा. खुद ही अपना पीठ थपथपाने के लिए ग़ालिब यह विश्लेषण गैर मुनासिब नहीं है, लेकिन संभावनाओं और क्षमताओं से भरे विश्व के सबसे बड़े युवा देश के लिए क्या यह संतोष का भी विषय हो सकता है ?  तो आइये, अब इस तथ्य की विवेचना एक अन्य पहलू  से करते हैं. 

2012 लंदन ओलम्पिक में मेडल लिस्ट में शामिल पहले 15 देशों की जनसंख्या और उनके द्वारा प्राप्त पदकों की संख्या को देखने पर हमें देश की उपलब्धि बहुत ही छोटी जरुर लगेगी और दुःख भी होगा, लेकिन इसका एक सकारात्मक पक्ष भी है, जिसे अगर हम ठीक से समझें तो आगे इस मामले में पिछले वर्षों से बहुत ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करने की प्रेरणा मिलेगी.  आइये, पहले एक नजर डालते हैं उस पदक तालिका पर : 

 क्रमांक 
      देश का नाम
           स्वर्ण पदक
          कुल पदक
      देश की आबादी (करोड़ में)


1
अमेरिका
46
104
31.2

2
चीन
38
87
135.0

3
ब्रिटेन
29
65
6.2

4
रूस
24
82
14.2

5
दक्षिण कोरिया
13
28
5.0

6
जर्मनी
11
44
8.2

7
फ़्रांस
11
34
6.5

8
इटली
8
28
6.1

9
हंगरी
8
17
1.0

10
ऑस्ट्रेलिया
7
35
2.2

11
जापान
7
38
12.8

12
कजाकिस्तान
7
13
1.7

13
नीदरलैंड
6
20
1.7

14
यूक्रेन
6
20
4.6

15
क्यूबा
5
14
1.1







उपर्युक्त  तालिका को देखकर किसी भी सच्चे भारतीय के मन में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या भारत के दस-पन्द्रह बड़े और अपेक्षाकृत जागरूक प्रदेश, मसलन उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पं. बंगाल, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडू, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, ओड़िशा, केरल, झारखण्ड, पंजाब और हरियाणा अपने-अपने दम पर इन 15 देशों के साथ ओलम्पिक खेल में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते ? बताने की जरुरत नहीं कि इस काम को अंजाम देने के लिए हमारे प्रदेशों में न तो क्षमतावान खिलाड़ियों की कमी है और न ही सरकारी फंड की. बस एक बार दृढ़ संकल्प व निष्ठा के साथ इस दिशा में बढ़ने की जरुरत है. कौन नहीं जानता कि खेलकूद हमारे बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए कितना आवश्यक है. झारखण्ड से लेकर महाराष्ट्र तक, जम्मू–कश्मीर से लेकर केरल तक हॉकी, बास्केटबॉल, साइकिलिंग, तैराकी, फुटबॉल, तीरंदाजी, भारोत्तोलन, बैडमिंटन, जूडो, कुश्ती आदि खेलों के लिए हमारे गांवों–कस्बों और छोटे–बड़े शहरों में युवा प्रतिभाओं की भरमार है. आवश्यकता है तो सिर्फ इस बात की कि खेलों के मैदान से राजनीति के खेल को दरकिनार कर इन क्षमतावान प्रतिभाओं को भरपूर मौका एवं प्रशिक्षण दें, उन्हें मोटिवेट करें और उनके हुनर को सतत तराशने की जिम्मेदारी का निर्वहन करें. तभी हमारे खिलाड़ी बड़ी संख्या में ओलम्पिक सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में भाग लेने के लिए न केवल क्वालीफाई करेंगे और पदक जीत कर अपने देश-प्रदेश का नाम रोशन कर सकेंगे, बल्कि अपना और अपने परिवार का भविष्य भी संवार सकेंगे.   
                                                                                    (hellomilansinha@gmail.com)
                                   
                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
#  प्रवक्ता. कॉम पर प्रकाशित                                                                                                                                   

Saturday, July 2, 2016

लघु कथा : उदाहरण

                                                                                       - मिलन सिन्हा 


कम्पनी के प्रबंध निदेशक का अचानक क्षेत्रीय कार्यालय के निरीक्षण का कार्यक्रम दोपहर बारह बजे आया. 

क्षेत्रीय  प्रबंधक ने तत्काल कार्यालय के सभी कर्मचारियों को इसकी सूचना दी और सबको अपने–अपने कार्य को बिलकुल अद्दतन करने की हिदायत दी. बैठक के लिए कार्यालय के सभाकक्ष को साफ़–सुथरा एवं टीप-टॉप रखने का निर्देश भी दिया. इस काम की देख-रेख के लिए उन्होंने वरीय अधिकारी भास्कर साहब को विशेष हिदायतें भी दीं.

भास्कर साहब तत्क्षण इस कार्य में लग गये. उन्होंने पहले संबंधित सफाई कर्मचारी की खोज की. वह उस दिन आया ही न था. दूसरा सफाई कर्मचारी सुबह अपना काम करके जा चुका था. भास्कर साहब  ने इस स्थिति में कुछ अन्य वरीय अधिकारियों एवं कर्मचारियों से इस संबंध में बात की. सबने पल्ला झाड़ लिया. 

प्रबंध निदेशक का अपराह्न चार बजे आने का कार्यक्रम था. दो बज चुके थे. भास्कर साहब  को कोई अन्य विकल्प नजर नहीं आ रहा था. 

लगभग तीन बजे  क्षेत्रीय  प्रबंधक स्थिति का जायजा लेने के क्रम में सभाकक्ष में आये तो यह देख कर स्तब्ध रह गये कि भास्कर साहब खुद सभाकक्ष की सफाई में तन्मयता से लगे हैं. सभाकक्ष साफ़–सुथरा एवं बैठक के अनुरूप हो चला था. यह सब देख कर क्षेत्रीय  प्रबंधक अभिभूत हो गये. उन्होंने भास्कर साहब से पूछा कि इतने वरीय अधिकारी होने के बावजूद भी वे ये सब खुद क्यों करने लगे, उन्हें क्यों नहीं बताया एवं अन्य लोगों का सहयोग क्यों नहीं लिया ?

भास्कर साहब ने क्षेत्रीय  प्रबंधक को पूरी पृष्ठभूमि की जानकारी दी और बिलकुल निःसंकोच होकर कहा, ‘सर, हमें ये  काम अपने घर में करने में कोई परेशानी तो नहीं होती है, फिर आज आवश्यकता  पड़ी  है तो इसे करने में संकोच कैसा ? इसके अलावे एक वरीय अधिकारी होने के नाते मुझे  ही पहल करनी थी.’ भास्कर साहब ने आगे कहा, ‘सर, आखिर यह दफ्तर भी तो हमारा घर ही है . हम यहां रोटी कमाते हैं और घर में खाते हैं.’

क्षेत्रीय  प्रबंधक  ने देखा कि यह सब कहते हुए भास्कर साहब का चेहरा उद्दीप्त हो उठा.  
                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

( लोकप्रिय अखबार 'हिन्दुस्तान' में 6 अगस्त, 1998 को प्रकाशित)