- मिलन सिन्हा
रेलवे प्लेटफार्म के
मैगेजीन स्टॉल पर एक पत्रिका उलट रहा था कि उसी समय पीठ पर किसी ने हल्की-सी धौल
जमायी . मुड़कर देखा तो वह कुमार था , पुराना सहपाठी. हाथ में ब्रीफकेस लिए वह
मुस्करा रहा था. ख़ुशी हुई उसे देखकर, उससे मिलकर. करीब पांच वर्षों के बाद हम मिले
थे.
“यार, बिज़नेस के
सिलसिले में यहाँ आना हुआ है – कुमार सिगरेट सुलगाते हुए बोला. दो दिन यहाँ रुकना
पड़ेगा शायद.”
मैं उसे पकड़ कर घर ले
आया. दफ्तर से दो दिनों की छुट्टी ले ली. दो दिन बड़ी व्यस्तता में बीत गए. कुमार
के आवभगत में मैंने कोई किफायत नहीं की.
कुमार को विदा करने मैं उसके साथ स्टेशन गया. ट्रेन आने में
कुछ देर थी. मैं कुमार के लिए एक पत्रिका लाने गया. लौटा तो देखा कि कुमार अपने
किसी परिचित से हंस-हंस कर बातें कर रहा था. लौटते हुए उसने मुझे नहीं देखा था.
कुछ दूर पर खड़ा होकर मैं पत्रिका उलटने लगा, तभी मेरे कानों में आवाज गूंजी, “अरे
यार, मत पूछो, बड़ा शानदार मुल्ला फंसा था. दो दिनों तक गुलछर्रे उड़ाते रहे. खूब
बेवकूफ .....” यह कुमार बोल रहा था.
ट्रेन प्लेटफार्म पर
आ चुकी थी. जगह खोजकर मैंने कुमार को बिठाया. विदा लेने से पहले कहा, “ कुमार फिर
आना, जरुर आना.”
कुमार खामोश रहा, हैरत से मुझे केवल देखता रहा वह.
और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं।
# लोकप्रिय अखबार , 'हिन्दुस्तान' में 17 अप्रैल, 1997 को प्रकाशित