Sunday, August 11, 2019

मोटिवेशन : उन्माद व हिंसा से सिर्फ नुकसान

                                                                       - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
विविधताओं से भरे हमारे विशाल देश में प्रायः रोज कहीं-न-कहीं कारण-अकारण हिंसा की छोटी-बड़ी घटनाएं होती रहती है. लोगों के घायल होने, मरने से लेकर निजी एवं सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान भी होता है. विद्यार्थियों के बीच बात-बेबात लड़ाई-झगड़े-मारपीट आदि की खबरें भी मिलती रहती है. इस सबसे सामाजिक व शैक्षणिक माहौल बिगड़ता है. विभिन्न सर्वेक्षणों में पाया गया है कि ऐसे अधिकांश  मामलों में चाहे-अनचाहे कुछ विद्यार्थी शामिल रहते हैं. कारण कई हैं.

विद्यार्थी जीवन उतार-चढ़ाव से भरा होता है. गतिशीलता का यह पर्याय है. उर्जा, उमंग और उत्साह विद्यार्थी जीवन के सहचर होते हैं. इन्हें सम्हालना और अच्छे कार्य में लगाना विद्यार्थियों के  उज्जवल भविष्य की दिशा निर्धारित करता है. हां, यह भी सच है कि इस उम्र में उतावलापन और उन्माद कुछ ज्यादा होता है जो हिंसा, तोड़फोड़ आदि का सहज कारण बनता है. ऊपर से खाली  दिमाग तो शैतान का घर होता ही है. यह बात निहित स्वार्थी तत्व बहुत अच्छी तरह जानते-समझते हैं. ऐसे तत्वों को अपने समाज और देश की भलाई से कोई मतलब नहीं होता. उनका एक मात्र उद्देश्य किसी भी तरह द्वेष व भ्रम फैलाकर आपसी सदभाव एवं भाईचारा को नष्ट करना और अंततः हिंसा और तोड़फोड़ के जरिए अपना उल्लू सीधा करना होता है. और इन कार्यों को अंजाम देने के लिए वे  विद्यार्थी और युवा वर्ग को सॉफ्ट टारगेट मानते हैं. जानकार बताते हैं कि इन असामाजिक तत्वों के बहकावे या प्रलोभन में आकर कई विद्यार्थी हिंसा सहित अन्य अवांछित कार्यों में शामिल हो जाते हैं और अंततः पुलिस के गिरफ्त में आ जाते हैं. स्वाभाविक रूप से गैर-कानूनी काम में संलिप्तता साबित होने पर जेल तक की सजा होती है. फिर पुलिस रिकॉर्ड में एक बार नाम दर्ज हो जाने का दुष्परिणाम  विद्यार्थी को लम्बे समय तक भोगना पड़ता है. अहम सवाल यह है कि जीवन के इस महत्वपूर्ण कालखंड में हमारे विद्यार्थी उन्माद, हिंसा आदि से कैसे बचें?

पहले तो हर विद्यार्थी हमेशा यह याद रखें कि इस समय यानी जीवन के इस प्राइम टाइम में उनका मूल मकसद क्या है? पढ़ाई -लिखाई, खेल-कूद और व्यक्तित्व विकास के अन्य कार्य. यही न. तो फिर इससे इतर कोई अन्य काम, खासकर ऐसा कोई काम जो प्रथम दृष्टया ही गैर-कानूनी लगता हो या अनैतिक हो, करने से सर्वथा दूर रहें. दूसरे, कोई भी कनफूजन हो तो अपने अभिभावक-शिक्षक से बात कर लें. और तीसरे, ऐसी किसी स्थिति में इस बात का भी स्मरण कर लें कि महात्मा बुद्ध, महात्मा गांधी, लियो टॉलस्टॉय से लेकर आज तक के सभी महान लोगों ने स्पष्ट रूप से बारबार कहा है कि किसी भी समस्या का समाधान उन्माद और हिंसा से नहीं हो सकता है.

इन सब बातों का मतलब यह नहीं कि छात्र-छात्राएं अन्याय, शोषण या अत्याचार को चुपचाप सहते रहें और उसका प्रतिकार न करें. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी या लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा बताया गया शांतिपूर्ण सत्याग्रह तथा अहिंसक आन्दोलन का मार्ग तो हमेशा खुला है. 

एक बात और. सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के इस दौर में किसी भी घटना-दुर्घटना की सच्चाई की सही पड़ताल एवं छानबीन किए बगैर बस किसी प्रतिक्रिया स्वरुप तुरत गुस्से या उन्माद में आने, भीड़ का हिस्सा बनकर सड़क पर उतरने और हिंसा-तोड़फोड़ में शामिल होने का परिणाम विद्यार्थियों के लिए  बहुत घातक हो सकता है. ऐसे हजारों केस हैं जब हिंसक घटना के बाद थाने में पुलिस के सामने विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों को पश्चाताप करते और रोते-विलखते-माफ़ी मांगते देखा गया है. पर जो हो जाता है, उसे पलटना कहां मुमकिन होता है? कानून के अनुसार उसका दंड तो भुगतना ही पड़ता है.

एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि देश के अच्छे शिक्षण संस्थान, मसलन आईआईटी, आईआईएम, एम्स आदि में पढ़नेवाले विद्यार्थियों को आपने कदाचित ही किसी हिंसक आन्दोलन में शामिल होते और तोड़फोड़ करते हुए निजी एवं सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाते देखा होगा. शायद  इसलिए कि इन संस्थानों के विद्यार्थियों को हर क्षण अपना मूल मकसद याद रहता है. बड़ा सच तो यह भी है कि सभी शिक्षण संस्थान के अच्छे विद्यार्थी न केवल अपने मित्रों को बहकावे एवं प्रलोभन  में आने से रोकते हैं बल्कि विद्यार्थियों को बहकाने, फुसलाने और समाज में अशांति फैलानेवाले तत्वों को प्रशासन के हवाले करने की यथासंभव कोशिश भी करते हैं, जिससे कि समाज में शांति बनी रहे. आखिर शिक्षा के वास्तविक मर्म को समझनेवाले विद्यार्थियों से समाज को भी अपेक्षा तो रहती ही है कि वे एक जागरूक और जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य बखूबी निभाएं. 
(hellomilansinha@gmail.com)

                   
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Thursday, August 8, 2019

मोटिवेशन : मन को मना लो

                                                                  - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
कॉलेज के दिनों की बात है. हमारे एक प्राध्यापक थे. बहुत अच्छा पढ़ाते थे. पढ़ाते वक्त उनकी तल्लीनता के क्या कहने. क्लास में या बाहर कई विद्यार्थियों को अक्सर उन्हें यह कहते सुना था  कि सफल होना है तो मन को मना लो और अच्छे काम में लगा लो. उनके कहने का अभिप्राय यह था कि पढ़ना, खेलना, खाना या अन्य कोई भी काम हो - बस मन लगा कर करो.  सामान्यतः कुछ इसी  तरह की नसीहत बचपन से लेकर बड़े होने तक, घर-स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी तक और उसके बाद भी बड़े-बुजुर्ग-अध्यापक अपने बच्चों-विद्यार्थियों को देते रहते हैं. आपको भी मिली होगी. लेकिन क्या आपने कभी गंभीरता से इस नसीहत पर विचार किया है ?

सभी जानते हैं कि मानव मन चंचल है और मन की चंचलता के मामले में बच्चे-किशोर-युवा स्वभावतः आगे रहते हैं. कभी सिर्फ दो मिनट अपनी आखें बंद कर मन को खुला छोड़ दें और इस बात पर ध्यान दें कि आपका मन कहां-कहां घूम रहा है, क्या-क्या सोच रहा है? ऐसे, बैठे-बिठाए भी मन के विचरण का अंदाजा लगाना आसान है.  ज्ञानीजन भी कहते हैं कि अगर किसी ने अपने मन को मना लिया तथा  मन को अच्छे काम में लगा लिया तो  वे जीवन की तमाम चुनौतियों का अच्छी तरह सामना करते हैं; उनके लिए जीवन के मुश्किल-से-मुश्किल दौर से निकलकर  लक्ष्य तक पहुंचना कठिन नहीं होता है. खासकर विद्यार्थियों के लिए ऐसा करना तो बहुत फायदेमंद है.

 फर्ज कीजिए कि आप किताब खोलकर पढ़ने बैठे हैं, पढ़ भी रहे हैं, पर कुछ देर बाद एकाएक लगता है कि जैसे कुछ पढ़ा ही नहीं या कुछ पढ़ा तो कुछ  वाकई  नहीं पढ़ा. ऐसा भी कई बार  देखा होगा कि क्लास में शिक्षक पूरा चैप्टर पढ़ा गए और अंत में जब उन्होंने एक छोटा-सा प्रश्न पूछा तो कुछ विद्यार्थी उत्तर नहीं दे सके, जब कि अन्य कई छात्र-छात्राओं ने उस सवाल का जवाब आसानी से दे दिया. आखिर ऐसा  क्यों और कैसे होता है? दरअसल, तन से तो सब विद्यार्थी  वहां मौजूद थे और शिक्षक महोदय द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषय के प्रति सजग भी दिख रहे थे अथवा खुद भी जब पढ़ रहे थे, दोनों ही स्थिति में क्या आपका  मन भी तब वहां था या  कहीं और भटक रहा था या किसी सोच में व्यस्त था? शर्तिया उस वक्त तन और मन एक साथ उस कार्यविशेष के प्रति समर्पित नहीं था. पढ़ने, काम करने आदि की बात छोड़ें, बहुत लोग तो क्या खा रहे हैं, कितना खा रहे हैं - कुछ देर बाद ही उसकी बाबत पूछने पर बताने में असमर्थ रहते हैं. सोचनेवाली बात है कि पढ़ाई हो या अन्य कोई काम, शरीर से तो वैसे भी वे वहां होते ही हैं, समय, उर्जा आदि भी खर्च करते हैं, लेकिन चूंकि मन को उस काम में नहीं लगा पाते, इसके कारण वे अपेक्षित लाभ नहीं पाते हैं. इसका नकारात्मक असर उनके व्यक्तित्व विकास पर पड़ना लाजिमी है. मन को मनाने और अच्छे काम में लगाने से यह परेशानी नहीं होती है. 

दिलचस्प बात है कि जब आप किसी काम को मन से करते हैं तो न केवल उसमें अपेक्षित रूचि लेते हैं और तन्मयता से उसे अंजाम देने की भरसक कोशिश करते हैं, बल्कि  उस काम को संपन्न  करने का पूरा आनंद भी महसूस करते हैं. इसके विपरीत जब आप उसी काम को बेमन से करते हैं, बोझ समझकर करते हैं तो उस कार्य की गुणवत्ता तो दुष्प्रभावित  होती ही है, कार्य पूरा होने के बाद भी आनंद की अनुभूति नहीं होती है. 

कहने का तात्पर्य यह कि अगर पढ़ने बैठे हैं तो मन को सिर्फ पढ़ने में लगाएं. उस एक-दो घंटे के सीटिंग में मोबाइल को साइलेंट मोड में करके दूर रख दें, ध्वनि प्रदूषण सहित अन्य व्यवधानों से बचें और हर तीस मिनट के बाद एक मिनट का ब्रेक लें और आंख बंद कर यह याद करने की कोशिश करें कि इस बीच क्या पढ़ा, क्या उसे अभी आप लिख पायेंगे? लगातार ऐसा अभ्यास करते रहने पर आप खुद ही मन लगाकर पढ़ने में पारंगत होते जायेंगे. अन्य किसी काम में भी आप इस सिद्धांत को अमल में लाकर लगातार अपने परफॉरमेंस को बेहतर करने में सक्षम हो सकते हैं. ऐसे, हमारे संत-महात्मा ध्यान के नियमित अभ्यास से मन को मनाने और नियंत्रित करने का उपदेश तो देते ही रहे हैं. 

सच तो यह है कि मन लगा कर काम करनेवाले विद्यार्थी अच्छे-बुरे हर  परिस्थिति में  अपने काम को एन्जॉय भी करते हैं. लिहाजा वे ज्यादा स्वस्थ एवं खुश भी रहते हैं. काबिलेगौर बात यह भी है कि इस तरह काम करने से कार्यक्षमता बढ़ती है, आत्मविश्वास में इजाफा होता है, समय का पूरा सदुपयोग होता है और साथ ही आप बेहतर परिणाम के हकदार भी बनते हैं.   (hellomilansinha@gmail.com)

                     
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Thursday, August 1, 2019

मोटिवेशन : संयम को अपना दोस्त बनाएं

                                                                 - मिलन  सिन्हा,  मोटिवेशनल स्पीकर... ....
आप सभी ने क्रिकेट विश्व कप टूर्नामेंट में भारत के साथ अन्य टीमों के कई खिलाड़ियों को कठिन परिस्थितियों  में भी संयमशीलता का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए देखा होगा. उन्होंने अपने-अपने  टीम के लिए बहुत उल्लेखनीय योगदान किया. जरा सोचिए, अगर इन खिलाड़ियों ने उन मैचों में उतावलापन दिखाया होता, जल्दबाजी की होती तो शायद वे ऐसी यादगार पारी नहीं खेल पाते. यह महज विश्व कप की बात नहीं है. संयम का मीठा फल हर क्षेत्र में मिलता है. विलियम शेक्सपियर कहते हैं, "वे कितने निर्धन हैं जिनके पास संयम नहीं है." सही बात है. घर-बाहर हर जगह हमें इसका प्रमाण मिलता है. 

'हड़बड़ से गड़बड़', 'जल्दी काम शैतान का' जैसी कहावतें सभी विद्यार्थी सुनते रहते हैं. बड़े-बुजुर्ग हमेशा कहते हैं कि संयम का फल मीठा होता है. पेड़ पर लगे फल को समय पूर्व अर्थात पकने से पहले तोड़ कर खाने पर वह खट्टा व कसैला लगता है. जो लोग संयम रखते हैं और फल को पकने देते हैं, उन्हें ही मीठा फल खाने को मिलता है. विद्यार्थियों के मामले में भी हमें ऐसा ही  देखने को मिलता है. 

विद्यार्थी जीवन में अमूमन हर कोई  उत्साह, उमंग और उर्जा से भरा रहता है. वह कई तरह के सपने देखता है. उसकी विविध इच्छाएं-आकांक्षाएं होती हैं. वह एक साथ बहुत कुछ हासिल करना चाहता है और वह भी फटाफट. इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार रहता है. वाकई करने की कोशिश भी करता है. हां, यह बात और है कि कई बार चाहकर भी कर नहीं पाता है. इसके एकाधिक कारण हो सकते हैं. लेकिन इस सबमें एक बात तो साफ़ है कि चाहने, करने, होने और फल पाने के बीच संकल्प और मेहनत के साथ-साथ संयम की बहुत अहम भूमिका होती है. सोच कर देखिए, अगर कोई किसान यह सोचे कि आज बीज रोपा और कल फसल काट लेंगे, तो क्या यह संभव होगा? उसी तरह अगर कोई विद्यार्थी यह सोचे कि उसकी आज की पढ़ाई या अध्ययन  का फल  कल ही या उनके इच्छानुसार तुरत मिल जाएगा तो यह क्या सही होगा? इस संबंध में प्रकृति के व्यवहार और चरित्र को समझना दिलचस्प तथा ज्ञानवर्धक होगा.

दरअसल, जीवन में संयम का पालन करना कामयाबी की कुंजी है. असंख्य गुणीजनों ने जीवन  में संयम की अनिवार्यता एवं अहमियत को अपने कर्मों से साबित किया है और रेखांकित भी. लिहाजा, विद्यार्थियों के लिए संयम के महत्व को ठीक से समझना और उसे अपने जीवन में अंगीकार करना बहुत ही जरुरी है. सभी  इस बात को मानेंगे कि जोश के साथ होश में रहकर हर कार्य को ठीक से सम्पन्न करने में संयम की अहम भूमिका होती है. संयम से विद्यार्थियों में धीरता, गंभीरता, समझदारी एवं परिपक्वता आती है. इससे  सही निर्णय लेने में वे ज्यादा सक्षम होते जाते है. इसका बहुआयामी फायदा उनके साथ-साथ समाज और देश को भी मिलता है. ऐसे विद्यार्थी पढ़ाई में बेहतर तो होते ही हैं, अन्य कार्यों में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं. इसके विपरीत जो विद्यार्थी जीवन में संयम का महत्व जानते-समझते हुए भी उसे उपयोग में नहीं लाते हैं, उनके जीवन में अनायास ही अनुशासनहीनता, संवेदनहीनता, उदंडता जैसी बुराइयां घर कर लेती हैं, जिसका दुष्परिणाम उनको और देश-समाज को बराबर भुगतना पड़ता है. 

शोध कार्य में लगे विद्वानों-वैज्ञानिकों को जरा गौर से काम करते हुए देखिए तो आपको पाता चलेगा कि संयम का दामन थामकर वे साल-दर-साल तन्मयता से परिश्रम करते रहते हैं, तब कहीं जाकर वे अपने शोध कार्य को पूरा कर पाते हैं. दुनिया में हुए तमाम आविष्कारों का इतिहास अगर हम पढ़ें तो संयम  की महत्ता का प्रमाण स्वतः मिल जाएगा. इलेक्ट्रिक बल्ब के आविष्कारक थॉमस अल्वा एडिसन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. सार्वजनिक जीवन में असाधारण सफलता हासिल करनेवालों के जीवन पर भी नजर डालें, चाहे वे महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, लालबहादुर शास्त्री, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय या अब्दुल कलाम हों, तो आपको वाणी से लेकर उनके व्यवहार एवं कार्यशैली में यह  गुण अनायास ही दिख जायेंगे. सच है, उन लोगों ने संयम को हमेशा अपना दोस्त बनाए रखा. 
                                                                          (hellomilansinha@gmail.com)


               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं   
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